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आत्म-दर्शन / राजकमल चौधरी

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दुराग्रह बनि गेल जीबाक माध्यम, हँसबाक कारण
नइँ कए सकलउँ भ्रम ऊहापोहसँ निवारण
अनागताक दुआरि, सभ किछ अएलहुँ हम हारि
काटए लगलउँ जड़ि, बैसि वृक्षक ऊँच डारि
परम्परा आस्था हो जेना खेलौना रंगल-बिनरंगल सुन्दर कुरूप
माटिक राजा-रानी, हाथी, कुकुर, बानर
अबोध बालकक खेलक साधन
जेना रामलीलाक रंगल-गढ़ल मुखड़ा-
पतिसंग वनगमन प्रस्तुता सीता, साधु बनल रावण
सोनाक मृग मारीच, वानरसेनाक शासक सुग्रीव
वने-वन विलाप करइत बताह राम...
-सभ माटिक (सभ देखलउँ हम)!
बदलामे प्राप्त भेल परिवारक क्रोध
कोनो अपरिचिता कन्याक स्नेह
मुदा, तइयो रूकल नइँ हमरा अधरक गीत
समय-राक्षस नइँ सकल हमरासँ जीत
कोनो एक नारी नइँ बनल हमर परम्परा
कोनो एक स्वप्न पर भेल नइँ हमरा आस्था
कोनो एक स्थितिक साधना कएलउँ नइँ
छल सँउसे विश्वसँ हमरा बड़ नेह
सँउसे प्रकृति हमर प्रेमिका, सभठाम हमर गेह