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आत्म निर्माता के स्वगत (छठवाँ निशीथ) / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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अमा-गगन की नभ छाया में जलाता दीपक-सा मन,
मेरे छितराए सपने सब ऊँघ रहे तारे बन !
पंख मारती बार-बार कोई विहगी भरमाई,
अभी गई वह दो क्षितिजों तक, अभी लौट कर आई!
पूछ रहा है नीरवता से,-- क्या पहचान सकी मुझको तुम
पहली आतुरता से  ?....
किन्तु, नहीं वह बोली,
कुछ भी मर्म खुला न, विटपकी डाल नहीं टुक डोली!
अंधियारे से हार गया जग, दीप-शिखे! मत रोना,
मेरा भी न, मगर तेरा तो पहचाना हर कोना!
है एक तरफ बेहोश पड़ी पीड़ा अगाध जीवन की,
दूसरी तरफ. मद-भरी कड़ी कामना विकल तन-मन की,
तीसरी तरफ भावना सजग जग के सम्बन्ध निभाती,
सामने कड़ी अपनी छाया, नस-नस में कील चुभाती!
जलना, गलना, हँसना, रोना,-- सब साथ-साथ कैसे होना ?
बेचैन बहुत पल-पल, छन-छन, जलता मेरा दीपक-सा मन!
तू काँप मत, मेरे ह्रदय! झकझोरती मेरी झंझा छिपाए साँस में,
तू छिप न, ओ मेरे नयन! काली घटा यह देख निज आकाश में,
अंतिम दिवस, अंतिम निशा, अंतिम घड़ी, यह आखिरी क्षण प्यास का;
लो काँपता पाषाण-पट अब फूटने वाला सुधा-निर्भर अनंत प्रकाश का!
लघु बाँह संज्ञा की अगर छू भी उसे पाती नहीं, तो मोड़ ले,
पलकें न रह पातीं खुली तो झुक, ठहर कर जोड़ ले!
तू बोल फिर मेरे अधर! लेकर गहन मन की बिलखती रागिनी,


अब फेक दो वंशी मधुर, दे छोड़ जीवन-वृक्ष लिपटी नागिनी!

दो स्नेह चिर संतोष, इच्छा को सफल विश्वास दो,
पावन करो तन-मन, प्रभो! आशा-वसंत-विकास दो!