भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आदमी थे हम / जय चक्रवर्ती

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छोडकर घर-गाँव, देहरी–द्वार सब
आ बसे हैं शहर मे
इस तरह हम भी प्रगति की
दौड़ को तत्पर हुए

चंद डिब्बों मे ‘गिरस्ती’
एक घर पिंजरानुमा
मियाँ-बीवी और बच्चे
ज़िन्दगी का तरजुमा

भीड़ के सैलाब मे
हम पाँव की ठोकर हुए

टिफिन, ड्यूटी, मशीनों की
धौंस आँखों मे लिए
दौड़ते ही दौड़ते हम वक़्त का
हर पल जिए

गेट की एंट्री, कभी-
हम सायरन का स्वर हुए

रही राशन और पानी पर
सदा चस्पाँ नज़र
लाइनों मे ही लगे रह कर
गई आधी उमर

आदमी थे कभी,
अब हम फोन का नंबर हुए