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आव पिय पलकन पै धरि पाँव / भारतेंदु हरिश्चंद्र

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आव पिय पलकन पै धरि पाँव।
ठीक दुपहरी तपत भूमि में नांगे पद मत आव॥
करुना करि मेरो कह्यौ मानि कैं धूपहि में मति धाव।
मुरझानो लागत मुख-पंकज चलत चहूँ दिसि दाव॥
जा पद कों निज कुच अरु कर पैधरत करत सकुचाव।
जाको कमला राखत है नित कर में करि करि चाव॥
जमैं कली चुभत कुसुमन की कोमल अतिहि सुभाव।
जो मन हृदय-कमल पै बिहरत इसि-दिन प्रेम-प्रभाव॥
सोइ कोमल चरनन सों मो हित धावत हौ ब्रजराव।
’हरीचंद’ ऐसो मति कीजै सह्यौ न जात बनाव॥