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आशी: / अज्ञेय

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 (वसन्त के एक दिन)
फूल कांचनार के,
प्रतीक मेरे प्यार के!
प्रार्थना-सी अर्धस्फुट काँपती रहे कली,

पत्तियों का सम्पुट, निवेदित ज्यों अंजली।
आये फिर दिन मनुहार के, दुलार के
-फूल कांचनार के!
सुमन-वृन्त बावले बबूल के!

झोंके ऋतुराज के वसन्ती दुकूल के,
बूर बिखराता जा पराग अंगराग का,
दे जा स्पर्श ममता की सिहरती आग का,
आवे मत्त गन्धवह ढीठ हूल-हूल के।

-सुमन वृन्त बावले बबूल के!
कली री पलास की!
टिमटिमाती ज्योति मेरी आस की
या कि शिखा ऊध्र्वमुखी मेरी दीप्त प्यास की।

वासना-सी मुखरा, वेदना-सी प्रखरा
दिगन्त में, प्रान्तर में, प्रान्त में
खिल उठ, झूल जा, मस्त हो,
फैल जा वनान्त में-
मार्ग मेरे प्रणय का प्रशस्त हो!

शिलङ्, 14 मार्च, 1934