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आस्था / श्रीकांत वर्मा

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यह सूनसान पगडंडी, झींगुर की चौकी।
ये बेलें जंगल की
दुबके ख़रगोश की ये चौकड़ियाँ।
यह टहलू की जमुहाई लेती हाँक
और फिर सन्नाटा!
फिर पत्तों की खड़खड़
झाड़ी, झुरमुट, झंखड़ में
बिंधी हुई मेरी छाया।
यह सूनसान पगडंडी, झींगुर की चौकी।

कब से इन बेलों, काँटों, लतरों से लड़ता
मैं साफ़ कर रहा
अंधकार का बीहड़ पथ।
हर झाड़ी मुझको कसने को
अपनी बाँहें फैलाए है।
मैं अब तक कभी नहीं सिसका,
लेकिन मैं भी रो सकता हूँ
मेरे दिल में फूलता
दर्द का गुब्बारा फट सकता है।
जब घबरा जाऊँ ओ मेरी आस्था!
मुझे आवाज़ लगाना तू।

पोखर के जल पर मेरी छाया काँप रही।
झुरमुट में
वह उजली गोरी चांदनी मुझे फुसलाती है।
विश्रांति गुहार रही है मुझको
पथ के अथ की खूँटी से।
समझौते-सी गलियाँ मिलतीं,
मिलकर समाप्त हो जाती हैं।
मैं हर त्रिकोण से दूर खड़ा।
मैं नाप रहा अपनी रेखा।
मैं जहाँ कटूँगा
वहाँ बनेगा कोण नए उदयाचल का।
मैं जहाँ गिरूँगा
वहाँ मील का पत्थर बन उग जाऊँगा।

यह सूनसान पगडंडी, झींगुर की चौकी।
ये बेलें जंगल की
दुबके ख़रगोश की ये चौकड़ियाँ।
जब घबरा जाऊँ ओ मेरी आस्था!
मुझे आवाज़ लगाना तू।