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आहे बसिया बजाबै बिरदाबन, मोरी ननदियो के आँगन हे / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

इस गीत में लोकमानस की एक अपूर्व कल्पना है। कृष्ण की बाँसुरी की आवाज सुनकर राधिका को नींद नहीं आती है। वह यशोदा के पास उलाहना देने जाती है कि आप अपने लाड़ले को मना कर दें। वह मेरे आँगन में आया करता है। यशोदा कहती है-‘जब तक कृष्ण बच्चा था, तब तक वह मेरी बातेॅ मानता था। अब तो युवक हो गया, मेरी बातेॅ क्यों मानने लगा? तुम स्वयं इस प्रकार का साज-शृंगार छोड़ दो। कन्हैया, आकर्षण नहीं रहने पर स्वयं आना छोड़ देगा।’ राधिका भला क्यों मानने लगी? वह तो बहाने से यशोदा के घर गई थी। मना करने के बावजूद राधिका साज-शृंगार ओर बढ़ जाता है। कृष्ण भी उसकी ओर विशेष रूप से आकृष्ट हो जाते हैं। फिर तो वर्षा ऋतु में उपयुक्त अवसर पर दोनों का मिलन होता है। फलस्वरूप, पुत्ररत्न का आगमन भी यथासमय होता है। प्रसव-वेदना से राधिका बेचैन होकर कहने लगती है कि मेरे प्रियतम की माँ बड़ी निर्दया है। वह मेरे दर्द को नहीं समझती।

इस समय राधिका की मानसिक दशा भी ठीक नहीं रहती। इस अवस्था में वह अपने प्रियतम के मिलने पर उसके साथ दुर्व्यवहार करने और उसे अपमानित करके घर से निकाल देने तक का संकल्प करती है। वह अपनी प्राणरक्षा के लिए भगवान सूर्य आदि देवताओं की आराधना करती है और प्रण करती है कि अगर इस बार इस र्द से मेरी प्राणरक्षा हो गई, तो मैं फिर ऐसा काम कभी नहीं करूँगी।

आहे बसिया बजाबै बिरदाबन, मोरी ननदियो के आँगन हे।
ललना रे, बसिया के सबद जियरा सालै, नीनो<ref>नींद</ref> भरी नहीं आबै हे॥1॥
उलहन<ref>उलाहना, उपालंभन, उबालहन</ref> दियै चललि राधिका, जसोदा जी के आँगन हे।
ललना रे, बरजि लेहो अपनो रे कन्हाई, कि नित मोर अँगनमा आबै हे॥2॥
जब लगि रहै लड़िका नदनमा, आहे तब त बरजिये लेलें हे।
ललना रे, अब भेलै तरुन रे जबनमा, बरजलों नहीं मानै हे॥3॥
मेटि लेहो दाँत दँतमिसिया, नैनमा भरि काजर हे।
ललना रे, लट लट लेहो छिरिआय<ref>छिटकाना</ref>, कन्हैया आँगन छोड़ि देतै हे॥4॥
आहे दाँत में लगैबै दँतमिसिया, नैनमा भरि काजर हे।
ललना रे, कसि कसि बान्हब गेडु़लिया<ref>गूँथे हुए केशों को लपेटकर गोलाकार बाँधना; खोपा; जूड़ा</ref>, कन्हैया के लोभायब हे॥5॥
कौने मास बिजली चमकि गेलै, कौने मासे बूनमा<ref>बूँद</ref> भेलै हे।
ललना रे, कौने मासे कन्हैया घर ऐलै, कौने मासे गरभिया रहलै हे॥6॥
अखाढ़े<ref>आषाढ़</ref> मासे बिजली चमकि गेलै, सावन मासे बूनमा भेलै हे।
ललना रे, भादव मासे कन्हैया घर आयल, आसिन मास गरभिया रहलै हे॥7॥
एक पहर राति बीतलै, बीतलै दुपहर राति हे।
ललना रे, पिछला पहर राति भेलै, दरदिया से बेकल मन हे॥8॥
आपन मैया रहतिऐ, पँजरबा लागि बैठतिऐ, ठेंघुनमा<ref>घुटना</ref> लागि हे।
ललना रे, परभुजी के मैया बड़ी निदरदी, दरदियो नहीं बूझै हे॥9॥
एही अवसर पिया मोर मिलतिहै, पगड़िया धरि मारतौं हे।
ललना रे, जुलफी पकड़ि घिसिऐतौं, हबेलिया से निकाली देतौं हे॥10॥
एबरियो बेरिया<ref>इस बार</ref> जब हम उबरब<ref>बच जाऊँगी</ref>, परमेसर किरिया खायब, सुरुजबा जल ढारब हे।
ललना रे, फेरु नय करब ऐसन काम, पलँगिया भिर<ref>नजदीक</ref> नहीं जायब हे॥11॥

शब्दार्थ
<references/>