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इक तमन्ना कि सहर से कहीं खो जाती है / शान-उल-हक़ हक़्क़ी

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इक तमन्ना कि सहर से कहीं खो जाती है
शब को आ कर मिरे आग़ोश में सो जाती है

ये निगाहों के अंधेरे नहीं छटने पाते
सुब्ह का ज़िक्र नहीं सुब्ह तो हो जाती है

रिश्ता-ए-जाँ को सँभाले हूँ कि अक्सर तिरी याद
इस में दो-चार गुहर आ के पिरो जाती है

दिल की तौफ़ीक़ से मिलता है सुराग़-ए-मंज़िल
आँख तो सिर्फ़ तमाशों ही में खो जाती है

कब मुझे दावा-ए-इस्मत है मगर याद उस की
जब भी आ जाती है दामन मिरा धो जाती है

नाख़ुदा चारा-ए-तूफ़ाँ करे कोई वर्ना
अब कोई मौज सफ़ीने को डुबो जाती है

कर चुका जश्न-ए-बहाराँ से मैं तौबा ‘हक़्की’
फ़स्ल-ए-गुल आ के मिरी जान को रो जाती है