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इक हवेली में बेचैन थे बामो-दर / रमेश 'कँवल'

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इक हवेली में बैचैन थे बामो-दर1
ख़्वाब की बस्तियों में थी इक रहगुज़र

बालकों की परेशानी पर ग़ौर कर
जल समाधि लगा बैठे बालू के घर .

इक सुनहरी किरन का सफ़र तय हुआ
खुल गर्इं खिड़कियां, जाग उठा सारा घर .

अब तो तफ़री2 है - साहिल3 भी है रायगां4
रेत पर बस गये पत्थरों के नगर .

टेप यादों का रूक रूक के बजता रहा
रात टेलीविज़न पर थे दो हमसफ़र .

पांव ज्वाला मुखी पर दहकते रहे
सर पे मेरे सुलगती रही दोपहर .

देखकर मेरे जहदो5- अमल6 का दिया
मुझ को आवाज़ देने लगा इक खंडर

दौरे-हाज़िर7 के इक़बालो-ग़ालिब थे सब
पर कर्इ जानते थे न शेरी हुनर

मैं वही, फिर वही बर्फ़बारी 'कँवल'
खिड़कियों पर मिली फिर वो बेकल नज़र। .


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