भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इन ग़रीबों ने कभी भी घर नहीं देखे / राकेश जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इन ग़रीबों ने कभी भी घर नहीं देखे
आपने भी तो कभी पत्थर नहीं देखे

ख़ूब बंजर आँख के सपने रहे हैं
झील-दरिया पर कभी बंजर नहीं देखे

पुल बनाना अब यहाँ मुमकिन नहीं, जब
आदमी ने आज तक बंदर नहीं देखे

ख़ूब देखे पेड़, नदियां और पर्वत हर तरफ़
पर कभी चिड़िया ने अपने पर नहीं देखे

खिड़कियों से झाँक ली रंगीन दुनिया आपने
दर्द लेकिन झाँककर अंदर नहीं देखे

बोलने को ख़ूब बोले, पर कहीं उसने यहाँ
शब्द काग़ज़ पर कभी लिखकर नहीं देखे

राख के, चिंगारियों के सुन लिए किस्से बहुत
आग के तुमने मगर मंज़र नहीं देखे