भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इलाज / हर्षिता पंचारिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुत्ते के काटने का इलाज है,
साँप के काटने का इलाज है,
पर मनुष्यों के काटने का कोई इलाज नहीं बना

दुनिया के तमाम विज्ञानियों और शोधार्थियों को
इसका भान ही नहीं रहा कि सभ्यता के लिए
मनुष्य से दूसरा ख़तरनाक प्राणी हो ही नहीं सकता
यह "जानवर" कैसे भी काट सकता है
गले मिलकर, हाथ मिलाकर, बिना मिले
कभी कभी तो बिना देखे भी काट सकता है

और महामारियों में
खूँखारता की मिसाल तो देखिए कि,
धर्म, जात, लिंग और विवेक से परे जाकर
मनुष्य मनुष्य को ही नोचता है
मनुष्य मनुष्य को ही खाता है

सभ्यता भी उस दिन को कोसती होगी,
जब उसने मनुष्य को विकसित किया
पर मनुष्य के क्रमिक विकास के क्रम में,
मनुष्यता का ही क्षरण हो गया

हे मनुष्यों!
ख़ुद को कम से कम इतना तो विकसित करो कि,
काटो तो पता चले कि,
काँटा कितने अंदर तक लगा है
गला काट नहीं, गला फाड़ के काटो
और फिर गला फाड़ कर कहो कि,
तुम्हारा काटा हुआ पानी तो क्या, हवा भी नहीं माँगता

ताकि फिर कभी नहीं माँगा जा सके
सभ्यता की पीड़ाओं का हिसाब
क्योंकि दुनिया में हर पीड़ा का इलाज है सिवाय,
उन दो जोड़ी असंख्य बेबस आँखों की पीड़ा के
जिन्होंने विषम समय में भी
इसलिए धैर्य, विश्वास और संयम नहीं खोया,
क्योंकि वे जानती थीं
तुम जानवर नहीं,
मनुष्य हो
हो ना!