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इश्‍क़ में गुल के जो नालाँ बुलबुल-ए-ग़म-नाक है / 'हसरत' अज़ीमाबादी

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इश्‍क़ में गुल के जो नालाँ बुलबुल-ए-ग़म-नाक है
गुल भी उस के ग़म में देखो किया गिरेबाँ-चाक है

दाग़-बर-दाग़ अश्‍क-बर-अश्‍क अपनी चश्‍म ओ दिल में है
क्या बला गुल-ख़ेज ऐ यारो ये मुश्‍त-ए-खाक है

ऐ खिज़र जाऊँ कहाँ मैं कूचा-ए-मय-ख़ाना छोड़
ख़ुश-दिली का मौलिद ओ मंशा ये ख़ाक-ए-पाक है

गर्क़-सर-ता-पा हूँ बहर-ए-बे-करान-ए-ख़ूँ में मैं
आश्‍ना पूछे है तो ये चश्‍म क्यूँ नम-नाक है

सर्व की निस्बत से उस क़द्द-ए-बला बाला को क्या
ख़ुश्‍क चोब-ए-पा बगल ये वो क़द-ए-चालाक है

हाए किन आँखों से देखूँ उस रूख-ए-रौशन पे ख़त
चश्‍मा-ए-ख़ुर्शीद में ये क्या ख़स-ओ-ख़ाशाक है

काफिर ओ मोमिन को रिक्क़त ग़म में है ‘हसरत’ के हाए
कुछ ख़ुदा का डर भी तुझ को ऐ बुत-ए-बे-बाक है