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इससे अधिक कभी कुछ नहीं चाहा / सुबोध सरकार / मुन्नी गुप्ता / अनिल पुष्कर

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दो समय दो मुट्ठी भात और किसी महीने एक बार नौका विहार
मैंने लेकिन इससे अधिक कभी कुछ नहीं चाहा
लेकिन नियति आकर चार कीलें ठोंककर मसहरी टाँगती है
उसी से हमारे चार हाथों में गड्ढे हैं पिरेकों के

एक बार नौका विहार, उसे तुम उच्च आकाँक्षा कहते हो ?
मेरी दवा खरीदकर जो लड़का लौट रहा है अभी
उसे पकड़ो, वह मेरी सारी बातें जानता है
वह और नियति लौटते हैं एक घोड़े पर, बीच में डॉक्टर लाहिड़ी ।

शरशैय्या के दिनों में मेरा लड़का जाएगा दवा लाने
मैनें इससे अधिक कभी कुछ नहीं चाहा ।

मूल बाँग्ला से अनुवाद : मुन्नी गुप्ता और अनिल पुष्कर