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इस कथा में मृत्यु-1 / मनोज कुमार झा

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इस कथा में मृत्यु कहीं भी आ सकती है
यह इधर की कथा है ।
जल की रगड़ से घिसता, हवा की थाप से रंग छोड़ता
हाथों का स्पर्श से पुराना पड़ता और फिर हौले से निकलता
ठाकुर-बाड़ी से ताम्रपात्र
- यह एक दुर्लभ दृश्य है
कहीं से फिंका आता है कोई कंकड़
और फूट जाता है कुएँ पर रखा घड़ा ।

गले में सफ़ेद मफ़लर बाँधे क्यारियों के बीच मन्द-मन्द चलते वृद्ध
कितने सुन्दर लगते हैं
मगर इधर के वृद्ध इतना खाँसते क्यों हैं
एक ही खेत के ढेले-सा सबका चेहरा
जितना भाप था चेहरे में सब सोख लिया सूखे ने
छप्पर से टपकते पानी में घुल गया देह का नमक
काग़ज़ जवानी का ही थी मगर बुढ़ापे ने लगा दिया ँगूठा
वक़्त ने मल दिया बहुत ज्यादा परथन ।

तलुवे के नीचे कुछ हिलता है
और जब तक खोल पाए पंख
लुढ़क जाता है शरीर ।

उस बुढ़िया को ही देखिए जो दिनभर खखोरती रही चौर में घोंघे
सुबह उसके आँचल में पाँच के नोट बँधे थे
सरसों तेल की शीशी थी सिर के नीचे
बहुत दिनों बाद शायद पाँच रूपये का तेल लाती
भर इच्छा खाती मगर ठण्ड लग गई शायद
अब भी पूरा टोला पड़ोसन को गाली देता है
कि उसने राँधकर खा लिया
मरनी वाले घर का घोंघा ।

वह बच्चा आधी रात उठा और चांद की तरफ दूध-कटोरे के लिए बढ़ा
रास्ते में था कुआँ और वह उसी में रह गया, सुबह सब चुप थे
एक बुजुर्ग ने बस इतना कहा-गया टोले का इकलौता कुआँ ।

वह निर्भूमि स्त्री खेतों में घूमती रहती थी बारहमासा गाती
एक दिन पीटकर मार डाली गई डायन बताकर ।

उस दिन घर में सब्ज़ी भी बनी थी फिर भी
बहू ने थोड़ा अचार ले लिया
सास ने पेटही कहकर नैहर की बात चला दी
बहू सुबह पाई गई विवाहवाली साड़ी में झूलती
तड़फड़ जला दी गई चीनी और किरासन डालकर
जो सस्ते में दिया राशनवाले ने
पुलिस आती तो दस हजार टानती ही
चार दिन बाद दिसावर से आया पति और अब
सारंगी लिए घूमता रहता है ।

बम बनाते एक की हाथ उड़ गई थी
दूसरा भाई अब लग गया है उसकी जगह
परीछन की बेटी पार साल बह गई बाढ़ में
छोटकी को भी बियाहा है उसी गाँव
उधर कोसी किनारे लड़का सस्ता मिलता है ।

मैं जहाँ रहता हूँ वह महामसान है
चौदह लड़कियाँ मारी गईं पेट में फोटो खिंचवाकर
और तीन महिलाएँ मरी गर्भाशय के घाव से ।