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इस तरह न गुम हों बचपन के दिन / हब्बा ख़ातून / सुरेश सलिल

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इस तरह न ग़ुम हों किसी के बचपन के दिन ।

कैसी तो धधकती आग पाल रखी है मैंने अपने भीतर !
इस तरह न ग़ुम हों किसी के बचपन के दिन ।

घर में शहद और मिश्री पर मेरी परवरिश हुई
हर रोज़ दूधों नहलाया जाता मुझे,
अब आवारा मंगतों जैसी घिसट रही है ज़िन्दगी,
इस तरह न ग़ुम हों किसी के बचपन के दिन ।

कैसा तो प्यार उँडेलते थे अब्बा अम्मी मुझ पर
माएँ रखतीं मुझे हर पल अपनी पलकों पर
किसने सोचा था, इस तरह ढह जाएगा ये घर !
इस तरह न ग़ुम हों किसी के बचपन के दिन ।

तालीम के लिए भेजा गया मुझे इक दूर की बस्ती में
वहाँ हर रोज़ मुल्लाजी बेरहमी से मुझ पर सण्टी फटकारते
उम्र आती मेरे अंग अंग पर मोटी मोटी स्याह बरतें ।
इस तरह न ग़ुम हों किसी के बचपन के दिन ।

विदा की गई मैं दूर गाँव दुलहन बनाकर
सखियांँ पीछे पीछे चलीं ब्याहुले गीत गाते
जबकि इश्क़ आलूदा मेरा दिल दुख से बिलख रहा था...
इस तरह न ग़ुम हों किसी के बचपन के दिन ।

अब्बा अम्मी ने असीसा कि मेरा बियाह फूले फले
वहाँ नीचे, मेरी ससुराल वाले अगवानी के लिए थे खड़े
और मेरी डोली झलमला रही थी चान्दी के पत्तरों से
इस तरह न ग़ुम हों किसी के बचपन के दिन ।

मैं यहाँ हूँ और तुम कितनी दूऽऽर हो वहाँ
कैसे तो यक् दिल यक् जान थे हम दोनों !
किसने सोचा था ये इमारत ढह भी सकती है कभी !
इस तरह न ग़ुम हों किसी के बचपन के दिन ।

मुट्ठी भर भात भी किसी को जिला रख सकता है, भला !
परवरदिगार के रहम का अगर साया न हो सिर पर !
और हब्बा ख़ातून के पास थी मटकों शराबे-इश्क़।
इस तरह न ग़ुम हों किसी के बचपन के दिन ।

मूल कश्मीरी से अनुवाद : सुरेश सलिल