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इस दुनिया में ही कई दुनियाएँ हैं / दिनेश्वर प्रसाद

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इस दुनिया में ही कई दुनियाएँ हैं
इस जीवन में ही कई जन्म
यही क्षण शताब्दियों वाला है

चाहता तो
अपनी इस छोटी-सी दुनिया के
घेरे तोड़
लालसा से रक्तिम और इन्द्रधनुषी आँखों से
सपने बिखेरते
अथवा आक्रोश से मुट्ठियाँ ताने
चिन्ता से बोझिल, तिमिर में बन्द
किन्तु किरणों की ओर मुँह किए
सदियों से कसी हुई ज़ंजीरें तोड़ते
लोगों की दुनियाएँ
बाँहों में कस लेता

चाहता तो
आत्मा की ज़मीन की
पथरायी परतें तोड़
नए-नए अनुभवों के बीज डाल
अपने इसी जीवन में
शायद ले सकता था बार-बार नया जन्म,
धूप से दीपित या मेघों से चित्रित
आसमान वाले दिनों के
अथवा निरँग, पारदर्शी दूरबीनी काल के
क्षण जो अयाचित वरदान-से मिलते रहे
उनको जीभर जीकर
पूर्वजों के बीते हुए युगों से अनागत तक
अपने को फैला कर सोचता —
‘कुछ भी नहीं गया व्यर्थ’

लेकिन इस दुनिया, इस जीवन,
इस क्षण का कितना देखा,
कितना भोगा, कितना जिया ?
अर्थों के आवर्त्त घेरते-गुज़रते रहे,
उन्हें कितना छुआ ?
उनका क्या किया ?

(1983)