भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस बस्ती के लोग / सुरेश यादव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


भरी बरसात में
बेच डाले हैं अपने छोटे-छोटे घर
खरीद लाये हैं एक बड़ा-सा आकाश
इस बस्ती के लोग
बैठे हैं जिन डालों पर
काटते उन्हीं को दिन-रात
कालिदास होने का भ्रम पाले हुए हैं
इस बस्ती के लोग
अक्सर इनकी चीखों का
इनके दर्दों से कोई रिश्ता नहीं होता
किसी और के जुकाम पर बेहाल होते हैं
इस बस्ती के लोग
चूल्हे - इन्हीं के होते हैं
जिनमें उगती है घास
सहलाते हैं हरापन इसका
थकती नहीं नज़रें इनकी
जाने किस नस्ल के रोमानी हैं
इस बस्ती के लोग.