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इस भ्रम के पेड़ को लाँघते हुए / श्रीधर नांदेडकर / सुनीता डागा

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इस उजाले की सीमा को लाँघते हुए
अभी नहीं कह सकता हूँ मैं विश्वास से
कि कौन है
कौन मेरी पीठ पर लदा हुआ है ?
साँप का डंसा हुआ भाई
या कि कोई ज़ख़्मी कविता ?

इस भ्रम के पेड़ को लाँघते हुए
नहीं समझ पा रहा हूँ
क्या अपनी ही पगडण्डी है यह लालटेन के आगे-पीछे
थरथराते, तेज़ी से नापते क़दमों की
पत्थर-ढेलों से फिसलती आगे बढ़ती
यह धूमिल परछाईं अपनी ही है या नहीं
नहीं समझ पा रहा हूँ

इस ख़ून के रिश्ते-सी सूखी-शुष्क
नदी को लाँघते हुए
नहीं होता है इस समय अन्दाज़
इस पत्थर पर कल-कल करता पानी था
तब बिल्कुल कहाँ पर
वह जानलेवा चान्द हँसिया उतरा हुआ था
पानी को तेज़ी से पीछे ठेलते हुए
उसे पकड़ने के लिए
जिधर ले जाए बहाव उधर ले जाती
क्या वह यही जगह है या नहीं

कुछ भी तो नहीं होता है ज्ञात
उस पानी में हँसिया चान्द ग़ुम हुआ या मित्र
उस पानी में हँसिया चान्द डूबा या मित्र
कुछ थाह नहीं लगती है

यह आग, यह अरण्य लाँघकर
मैं फिर से आ पहुँचा हूँ इनसानों की बस्ती तक
यह और एक जाना-पहचाना पेड़
और इस अन्तिम परछाईं में
नहीं तय कर पा रहा हूं मैं
कि मेरी पीठ पर से
कुछ क्षणों के लिए यहाँ पर क्या उतारकर रखना है मुझे
नीले विष की गठरी
या एक ज़ख़्मी कविता ?

मूल मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा