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उजली कसौटी (कविता) / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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जब भी इस जीवन को
मुड़कर मैंने देखा,
दीख पड़ी गंगा यह
उजली कसौटी-सी,
काश ! जान पाता मैं-
क्या तुमने भी देखा ?
अच्छा है,- जान सकूँ नहीं,
नहीं तो अपने-आपको
या तुम्हें भूल जाऊँगा !
- हम हैं दो बिन्दु,
हम विसर्जित हैं,
जीवित, असमर्पित है केवल यह याद की लकीर
उजली कसौटी पर
या...द...की...ल...की...र...नीरंग है,-
यह गति की वेग-धार अ...न्त...ही...न,-
यही नापने में तो मेरी हर लहर
विफल हो गई !
काश ! जान पाता मैं-
क्या तुमने भी नापी ?
इसके अतिरिक्त अभी तक मैंने खींची हैं
उजली कसौटी पर काली रेखाएँ,
इसीलिए टिकीं नहीं,
घुलकर सब बिला गईं;
अब जो गुज़रता हूँ कभी स्टीमर से,
लगता है-
उजली कसौटी पर चाकू फेर रहा हूँ !
- काली रेखाएँ
मानस में उग आती हैं,
कोई अर्थ-भरी तसवीर
नहीं बनती,
सब खिंचती, कट जाती हैं
काश ! जान पाता मैं-
क्या तुमने भी खींची ?
गंगा,- यह उजली कसौटी तो
मेरे लिए रहेगी,-
मेरे जीवन की हर धातु जो साँवली है !
उसे तपा हुआ सोना समझ लेता हूँ !
खींचता लकीरें सुनहली
पर काली उग आती हैं;
तो मुझे यकीन है,- कसौटी ही उजली है !
काश जान पाता मैं-
क्या ऐसा तुम्हें भी यकीन है ?
गंगा तो मेरी कसौटी, हाँ, वही ,मुक्त प्रगति की चुनौती,
तो,... मैंने या तुमने –
जिस साँझ को निहारा,
जिस चाँद को पुकारा,
जिन मेघों को सारा,
जिन तारों को आँसू से
जीत-जीत हारा;
उन सबकी पथ-रेखाएँ जिस पर खरी उतरीं,
काश ! जान पाता मैं,-
क्या वही तुम्हारी भी
–उजली कसौटी है ?