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उत्तर-कथा / प्रदीप मिश्र

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माँ का आँचल था
सिर पर आशीर्वाद की तरह

पिता की हथेली थी
दिमाग में जीवन विवेक की तरह

पत्नी का समर्पण था
हृदय में प्रेम की तरह

भाई का बन्धुत्व था
बाजुओं में ताक़त की तरह

बहन का स्नेह था
निगाहों में रौशनी की तरह

दोस्तों का साथ था
दिल में दिलासों की तरह

इतना सबकुछ था उसके पास लेकिन
सिर ढकने के लिए छत नहीं थी
रोज जलनेवाला चूल्हा नहीं था
ऐसे कपड़े नहीं थे
जिनको पहन कर वह सभ्य दिखे

सभ्य समाज का वह असभ्य नागरिक था

अपनी इस ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी से ऊबकर
उसने आत्महत्या कर ली

उसकी मौत पर जश्न मनाया गया
घर-परिवार-आस-पड़ोस सारे लोग
शामिल थे इस ख़ुशी में

वह शराब की एक बोतल में सिमट कर बैठा हुआ
सुबक रहा था अपनी मौत पर
हिम्मत जुटा रहा था
मौत के बाद का जीवन जीने के लिए

सीख रहा था आलीशान बँगले में रहने का सलीका
जला रहा था उस चूल्हे को
जो बिना भूख के भी जलता था
कपड़ों के इतने बडे़ अम्बार में
उतरने जा रहा था कि
रोज़ नए पहने तो ख़त्म न हों
नगर के सभ्य समाज की सूचियाँ
संशोधित हो रहीं थीं

सब जगह उसका नाम था
वह कहीं नहीं था
वह तो मर गया था ।