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उम्मीद मंजिले-मक़सूद की बहुत कम है / बुनियाद हुसैन ज़हीन

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उम्मीद मंजिले-मक़सूद की बहुत कम है
तेरे मिज़ाज में आवारगी बहुत कम है

नए ज़माने के इंसान क्या हुआ तुझ को
तेरे सुलूक़ में क्यूँ सादगी बहुत कम है

वो जिनसे ज़ीस्त की हर एक राह रोशन थी
उन्हीं चिराग़ों में अब रोशनी बहुत कम है

तमाम रिश्तों की बुनियाद है फ़क़त एहसास
मगर दिलों में तो एहसास ही बहुत कम है

जो सायादार कभी मौसमे-बहार में था
उसी दरख़्त का साया अभी बहुत कम है

मैं अपनी उम्र की तुझको दुआएं दूँ कैसे
मुझे ख़बर है मेरी ज़िन्दगी बहुत कम है

बदलते दौर की ज़द में है गुलसिताँ का निजाम
"ज़हीन" फूलों में अब ताज़गी बहुत कम है