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उम्र बीत गी हाड तुड़ाए, फिर भी भरतू भूखा रहग्या / रामेश्वर गुप्ता

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उम्र बीत गी हाड तुड़ाए, फिर भी भरतू भूखा रहग्या
बिना चौपड़ी, आधी रोटी, ऊपर गंठा सूखा रहग्या
 
कई जगह तै कुरता पाट्या, सारा बदन उघाड़ा होग्या
काळी चमड़ी हाड दीखते, सूख कै गात छुआरा होग्या
उनकी तोंदां रोज बढ़ैं, मेरा गात घणा यू माड़ा होग्या
तेरी च्यौंद टूटती ना अड़ै, इतना बड़ा पवाड़ा होग्या
वो हलवे पकवान खार्हे, तेरा टुकड़ा रूखा रहग्या
 
सिर पै औटी सब करड़ाई, कड़ी धूप अर पाळे म्हं
सारी रात पाणी ढोया तनै, मंदिर और शिवाले म्हं
तेरी कमाई ताबीज खागे, कुछ गई भूत निकाले म्हं
सारी उम्र तनै फरक कर्या ना, चोरों और रूखाळे म्हं
गंगा माई खूब पूज ली, तेरा खेत तो सूखा रहग्या
 
एक हजार पै गूंठा लाया, सौ का नोट थमाया रै
सब लोगां नै अनपढ़ता का तेरी फैदा ठाया रै
पीर, फकीर, बसंती माता चारों खूंट घुमाया रै
लुट पिट कै भी तू न्यूं बोल्या जिसी राम की माया रै
फिर भी सेठां का चेहरा, कति-ए-लाल-भभूका रहग्या
 
खेत-मील में तूं-ए-कमावै, पूंजी उसनै लाई रै
दस थमावै तेरे हाथ म्हं, निगलैं शेष कमाई रै
मौका सै लूट जाण कै, कुछ तो बचा ले भाई रै
‘रामेश्वर‘ नै बहुत कह्या, तेरे नहीं समझ म्हं आई रै
सारे दिन बस ताश खेलणा, तेरे हाथ म्हं हुक्का रहग्या