भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उषा-स्वस्ति / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्यार की
दूरागता पहली पुजारिन-सी
आ रही नभ में उषा !
मौन संशय की अँधेरी छाँह
घिर पड़ी धुँधले क्षितिज पर,
-दूर नावों पर ;
अब उसे सस्मित समेटे जा रही
कल्पना की दिशा !
यही सुधिमय समर्पण की घड़ी,
छाया-जगत् को
यों चूमती अरुणिमा,
जैसे बरसती हो
उच्छ् वसित आसंग की माधुरी l
हां, चिरन्तन प्रीति की प्रतिबिम्ब गाथा-सी
तरंगित रंगिनी गंगा;
एक डुबकी ले सहज अभिषेक को
आ गयी जल में उषा !
ओ उषा !
ओ चेतना की माँ !
( ऐसी सन्निकटता के लिए करना क्षमा ),
रह रहा कैसे तुम्हारा रहस और अखंड यौवन,
दिप रहा सद्यस्क अंगों में भला कैसे-
आनन्द यह निस्संग ?
दे रही क्यों
जरठता को दान शैशव का ?
मैं मुसाफ़िर वंचना की रात का,
विश्वास भी अपमान !
लो, तभी यों हो गयी ओझल
स्वयं उजला अँधेरा ओढ़कर
यह मुँहजली मेरी तृषा !
ओ डूबती जल में उषा !