भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उसने आईने रख दिए हर सू / राजीव भरोल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने चाहा था सच दिखे हर सू,
उसने आईने रख दिए हर सू।

ख्वाहिशों को हवस के सहरा में,
धूप के काफिले मिले हर सू।

काँच के घर हैं, टूट सकते हैं,
यूँ न पत्थर उछालिए हर सू।

फूल भी नफरतों के मौसम में,
खार बन कर बिखर गए हर सू।

लोग जल्दी में किसलिए हैं यहाँ,
हड़बड़ाहट सी क्यों दिखे हर सू?