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ऊष्मा / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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सुरभित रस में डूब रहे हम
फिर भी प्यास वही,
रहते उच्छ्वास वही,
धड़कन से धड़कन मिल जाने पर भी !
चारों ओर भरी है
यह गुलाब-जल-भींगी उमस,
युवा किरणों के नर्त्तन, उष्ण वायु के कम्पन,
शिखरों के आकाशी चुम्बन से
दहकी-दहकी है आग मही की,-
मेरे और तुम्हारे जी की l
सुबह-सुबह के स्निग्ध नहाये--
अंग तुम्हारे ओस-धुले दूर्वा-दल से,
यह ‘स्नो’ का मंद सुवास,
‘पाउडर’ की रूप-श्री,
नव ‘सिल्कन’ परिधान,
सरल श्रृंगार,
भोर भर रही लहू में नई रवानी,

श्रम से भरी जवानी !
बढ़ती धूप
काम में सधे हुए तन-मन,
प्रकाश के साथ चार लोचन हो उठते प्रखर
और रिसता रहता जीवन l
वे जीवन-स्वप्न हो चले आँखों से ओझल-
जिनमें झलमल मेखला-दुकूल-अलंकृत
होते थे नितम्ब-उपधान,
चन्दन-हार-सुशोभित पीन उरोजों का
शीतल आलिंगन
और अगरु-वासित अलकों की गन्ध कभी
थी ताप-शमन-संजीवन !
अब तो-
...गाँव-गाँव में खाद पसीने की
हलवाहे बहा रहे खेतों में,
...फूलें अमलतास या रक्त पलास नहीं,
थम जातीं कहीं घरेलू नारियाँ,-- सामान संभाले
सरकाये आँचल वर्रातीं हाट-बाट में छाँह तले,
अब अंग-सन्धि के स्वेद-कणों से सिक्त
रेशमी वस्त्र कहाँ लिपटे हैं
उनकी खाली बाँहों में ?
...जामुन के नीचे, बसबाड़ी में
बोझ घास का डाल,
किशोरी सीख रही कूक,
फूँक देता सुदूर बाँसुरी नहीं मन चाहा चरवाहा,
गा देता किसी फिल्म का गीत l
...मिली छुट्टी कामों से एक घड़ी,
तो नज़र पड़ी तलफे मवेशियों पर किसान की;
हरा-हरा पानी गड्ढे का पिला उन्हें
खूंटों से बाँध दिया कि ज़िन्दगी ही गोबर हो पड़ी !
अब तो--
शहर-शहर में...
फूल उठे गुलमुहर,
‘पार्क’ भी गुलदस्ते-सा
कुम्हलाता गर्मी में,
सडकें पिघल रहीं,
‘बस’ और ‘ट्रेन’ में घुटन,
तोष खस की टट्टी में
बंद पड़ी दूकानों के नीचे उलझी हैं
पनिहारिनें पचीसों,
नल खुलने के इंतज़ार में--
घड़े पड़े चालीसों l
पार कान के हुई किसी ट्रक की आवाज़
सलाख-सी,
जितनी बर्फ़ पियें उतनी
उड़ रही गले में राख-सी l
धीरे-धीरे साँझ हो रही,
तुम बरामदे में चुप करतीं
इंतज़ार मेरा,
भरी-भरी पलकें ये दुपहरिया में लग न सकीं,
जिनके आगे से
निकल गई होंगी कितनी बग्घियाँ, मोटरें,
रिक्शों की पाँतें कतरातीं,
जिनमें निष्फल उतराती होंगी फिर शायद
दूर किसी जंगल-पहाड़ की,
दूर मसूरी या शिमले की वही कल्पनाएँ, चाहें,-
जो बहुत पुरानीं l
कहाँ झलक पायें आँखों में
वन-पशु, पंछी, सर्प-मयूर, सिंह-करिवर,
मेढ़क-मछली, सारस-बन्दर,- सब दाह-विकल,
वे कहाँ झलक पाये ?
मैं थरमस में आइसक्रीम लेकर आया
तौ हँसी आ गई,
मध्यवर्ग के घर में कोने-कोने तक
बरसात छा गई !
आइसक्रीम पर होठों की मीठी स्केटिंग,
-- वा ऽऽ ह !
ठंडे होठों के गरमीले चुम्बन में
सिहरी-सिहरी-सी शाम !
फिल्म देख लें, आज एक सौ अस्सी पैसों की
दो खुशियाँ साथ लूट लें !
अभी, रात को लौट दस बजे,
खा-पी, लेट गए छत पर,..
-- क्यों ऊब उठे हम ?
हवा चल पड़ी, जैसे टूट गए बन्धन !
तुमने गाया—
“दम भर जो उधर मुँह फेरे
ओ चन्दा ऽऽ !
मैं उनसे प्यार कर लूँगी,
नज़रें तो चार कर लूँगी !”
मैं सोच रहा:
नज़रों की भी चाँदनी अनोखी है,
मन की इस ऊब-उमस पर
चन्दन बरसाती है,
चन्दा मुखड़े का भी कितना प्यारा,
अंगों में, मुरछी-मरी उमंगों में
ऊष्मा भरता है,
ये रोज जिलाते हैं जिजीविषा को,
सुनती हो ?—सचमुच रजनी भर
निहारता हुआ तुम्हारा मुख,
चन्दा भी अमृत-कणों की कमी
रोज पूरी करता है !