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ऋतुराज / अज्ञेय

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 शिशिर ने पहन लिया वसन्त का दुकूल,
गन्धवह उड़ रहा पराग-धूल झूल,
काँटों का किरीट धारे बने देवदूत
पीत-वसन दमक उठे तिरस्कृत बबूल।

अरे, ऋतुराज आ गया।
पूछते हैं मेघ, 'क्या वसन्त आ गया?'
हँस रहा समीर, 'वह छली भुला गया।'
किन्तु मस्त कोंपलें सलज्ज सोचतीं-

'हमें कौन स्नेह-स्पर्श कर जगा गया?'
वही ऋतुराज आ गया।
प्रस्फुटन अभी नहीं लगी हुई है आस
मुक्त हो चले अशक्त शीत-बद्ध दास।

मुक्त-प्राण, सर्वत्राण चैत्र आ रहा-
अंक भेंटने को तिलमिला उठे पलास।
क्योंकि ऋतुराज आ गया।
सिद्धि नहीं, दौड़ते हैं किन्तु सिद्धिदूत-

वायु चल रही है आज स्निग्ध मन्त्रपूत।
स्तब्ध हैं प्रतीक्षमान दिग्वधूटियाँ-
जीवन-प्रवाह बह रहा है अनाहूत।
क्योंकि ऋतुराज आ गया।

अभी सुन पड़ी नहीं है परभृता की कूक,
अभी कहीं कँपी नहीं है चातकी की हूक,
किन्तु क्यों सिहर उठी है रोम-रोम में-
प्यार की, अथक नये दुलार की भी भूख?

क्योंकि ऋतुराज आ गया-
अरे, ऋतुराज आ गया।

मेरठ, 1941