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एकलव्य / वंदना मिश्रा

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एकलव्य!
तुमने क्षण भर में दे दिया
अंगूठा गुरु को

जिसे मैं निन्दित करूं
तो ठेस लगेगी तुम्हें और निष्ठा को तुम्हारी।
या बिना अंगूठे वाले हाथ से
क्षत-विक्षत करना चाहोगे मुझे।

क्या सोचा था तुमने कि
अंगूठा दे तुम गुरु से पूज्य हो जाओगे?
या जब मूर्ति बनाई थी तो कल्पना की थी
ऐसी दक्षिणा की?
कहे न कहे इतिहास पर दहला होगा अर्जुन का मन

काँपा होगा उसका हृदय
गुरु के कृत्य पर
भयभीत रहा होगा ताउम्र

गुरु के दक्षिणा मांगने से।
तुमने जो क्षण भर में दे दिया
उसे देने की कल्पना से दहलता होगा
वह कायर स्वप्न में भी

सारे जीवन ग्लानि रही होगी
उसे तुम से हार जाने की