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एक अंधी हवस का शिकार आदमी / रोशन लाल 'रौशन'

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एक अंधी हवस का शिकार आदमी
भूल बैठा है आपस का प्यार आदमी

खुद से जब तक नहीं आशकार आदमी
आदमी में न होगा शुमार आदमी

जीतकर भी गया जंग हार आदमी
कितना नादान है होशियार आदमी

जान किन मौसमों के हवाले हुआ
आदमी को नहीं साजगार आदमी

अपने साये के पीछे चला जा रहा
एक खंजर लिए तेज धर आदमी

प्यार की साख पर आज बाज़ार में
नप़फरतों का करे कारोबार आदमी

अपने ही आप से जंग हारा हुआ
अपने ही आप से शर्मसार आदमी

दोस्ती हो वफा हो कि किरदार हो
अब किसी का नहीं पासदार आदमी

सबसे बढ़कर वही सबसे आला वही
ऐसे एहसास का है शिकार आदमी

ख़्वाब के रेगजारों में खोया हुआ
तिश्नगी का लगे इश्तेहार आदमी

भूख इक मसअला और दो रोटियाँ
खो न दे अपना हर इख्तियार आदमी

दरिया-दरिया वही ख़्वाब की कश्तियाँ
क़तरा-क़तरा वही अश्कबार आदमी

ख्वाब ‘रौशन’ न था फिर ये देखा है क्या
अपनी ही लाश पर सोगवार आदमी