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एक कतरा ज़िन्दगी जो रह गई है / रवीन्द्र प्रभात

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एक कतरा ज़िन्दगी जो रह गई है,
घोल दे सब गंदगी जो रह गई है।

भीख देगा कौन तुझको, ये बताना-
तुझमें ये आवारगी जो रह गई है?

आँख से आँसू छलक जाते अभी तक,
इश्क में संजीदगी जो रह गई है!

चाँदनी में घूमता है रात-भर वह,
चाँद में दोशीज़गी जो रह गई है!

बेबसी की बात करना छोड़ दे अब,
ख़ुदगर्ज़-सी ये बंदगी जो रह गई है!

सर क़लम कर मेरा, खंजर फेंक दे,
आँख में शर्मिन्दगी जो रह गई है!

फासला 'प्रभात' से है इसलिए, बस,
आपकी नाराज़गी जो रह गई है।