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एक कथा-गीत / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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रात बारिश हुई
और ढह गया!
इस बहाने
दुखों की कथा कह गया!

फर्श गीला हुआ, छत टपकती रही
भूख को, नींद आकर थपकती रही
मां सिसकती रही और बूढे पिता
बांचते ही रहे मौन भृंगुसंहिता

रात बारिश हुई
जल-प्रलय-सी मची
थरथराई जमीं
घर का अहसास ही
बाढ़ में बह गया!

भीगकर घर के वासी हुए तर-ब-तर
छलनी छत के तले, सब हुए दर-ब-दर
ढूंढते कोई कोना सुरक्षित, जहां
एक छत हो, न हो, पर, खुला आसमां

रात बारिश हुई
आसमां से
अकस्मात बिजली गिरी
घर का सपना
तड़ककर गिरा, ढह गया!

रामप्यारी उठी और घर से चली
त्रस्त होती हुई भूख-के दाह में
भेड़िये आ गये, धर दबोचा उसे
जिस्म टूटा, तड़पता रहा राह में

रात बारिश हुई
खून बहता रहा
फिर नदी बन गई
पर कहीं
एक चिथड़ा पड़ रह गया!

भोर होते-न-होते खबर आ गई
घर-गली क्या जगी, पूरा कस्बा जगा
एक गली के किनारे पड़ी लाश थी
पूरा कस्बा खड़ा देखता था ठगा

रात बारिश हुई
रामप्यारी हुई
‘राम-प्यारी’ मगर
कस्बा खामोश बन
हादसा सह गया!

घर की चौखट पकड़कर जो रोये पिता
दरकी दीवार सहसा तड़कने लगी
भड़भड़ाकर गिरी छत के शहतीर में
सर्द माथे की नस-नस फड़कने लगी

रात बारिश हुई
घर की जर्जर शिराओं में
पानी भरा
नींव धंसने लगी
और घर ढह गया!

घर भी क्या था, कहीं था रेहन पर रखा
उम्र बेटी की चुभती थी ज्यों बघनखा
बूढ़े मां-बाप को फिक्र थी बस यही
कर दें बेटी के अब हाथ पीले कहीं

रात बारिश हुई
हाथ क्या
देह पूरी ही पीली हुई
मन-पखेरू उड़ा
यह गया, वह गया!

लाल-पीली लपट, नीली-नीली चिता
जिसमें जलती थी खामोश भृगुसंहिता
यह महास्वप्न के टूटने की कथा
था खुली आंख का सच, ये सपना न था

रात बारिश हुई
नम हवा को
लगातार घिसता हुआ
एक शोला
भड़कता रहा, झह गया!
-1 मई, 1984