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एक चुप्पी आजकल सारे शहर पर छाई है / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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एक चुप्पी आजकल सारे शहर पर छाई है
अब हवा जाने कहाँ से क्या बहा कर लाई है

जिस सड़क पर आँख मूँदे आपके पीछे चले
आँख खोली तो ये जाना ये सड़क तो खाई है

अब चिराग़ों के शहर में रास्ते दिखते नहीं
इन उजालों से तो हर इक आँख अब चुँधियाई है

ख़्वाब में भी देख पाना घर ग़नीमत जानिए
पूछिए हमसे, हमें तो नींद भी कब आई है

कुछ तो तीखी —चीख़ डालेगी ही नींदों में ख़लल
पत्थरों के शहर से आवाज़ तो टकराई है

कंकरीले रास्तों में हमसफ़र के नाम पर
साथ ‘ द्विज ’ के तिश्नगी है, भूख है, तन्हाई है