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एक ज़ालिम ने मेरी नींद उड़ा रक्खी है / डी .एम. मिश्र

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एक ज़ालिम ने मेरी नींद उड़ा रक्खी है
कब से इस दिल में मेरे आग लगा रक्खी है

इतना आसान नहीं उसकी हक़ीक़त जानूं
हर तरफ़ कुहरे की दीवार उठा रक्खी है

अब कहां, किस की वो फ़रियाद सुनेगा यारो
सबको मालूम है दूरी क्यों बना रक्खी है

यार कमज़ोर है , डरपोक हमारा राजा
हम ग़रीबों के लिए फ़ौज लगा रक्खी है

ऐसे इंसान पे कैसे मैं भरोसा कर लूं
जिसने बाजू में ही शमशीर छुपा रक्खी है

शुक्र मानो कि सलामत वो शख़्स है अब तक
मैंने आंखों में ज़रा शर्म बचा रक्खी है