भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक नन्हीं बच्ची के लिए / ब्रजेश कृष्ण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारे आने से
किसी आश्चर्यलोक की तरह
अचानक बदल गई है मेरी दुनिया
धुँआरे आसपास से थकी और ऊबी हुई मेरी आँखें
देखती हैं अब धुले हुए नीले आसमान में
दूर तक परिन्दे का उड़ना

नन्हीं परी! मेरी आशी!
जब मिलाती हो तुम मेरी हँसी में
अपनी किलकती हँसी का अनोखा स्वर
तो अलौकिक सुगंध से भरता हूँ मैं
और होता हूँ एक बेहतर मनुष्य

चलना सीखने में तुम्हें लगेंगे अभी कुछ और दिन
मगर मैं देखता हूँ चकित
कि कोमल तलवों से धरती को दबाती हुई तुम
दौड़ती हुई-सी लगती हो

जब उठाती हो अनन्त की ओर
अपनी लालिम हथेलियाँ
तो घटित होता है मेरे सामने
अंतरिक्ष तक फैली अद्भुत आकांक्षा का खिलना

पलट कर आगे खिसकने की तुम्हारी
जटिल जद्दोजहद से सुन्दर दूसरा दृश्य नहीं है कोई

ओ मेरी नन्हीं बच्ची!
बचा कर रखना अपनी निर्मल हँसी
बचाना अपनी आकांक्षा का असीम विस्तार
और बचाना ज़रूर
आगे बढ़ने की यह जद्दोजहद
तुम्हें जाना है दूर...
बहुत दूर तक।