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एक बंध्या संध्या / रामनरेश पाठक

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यह फागुन की उदास सांझ है
मेरी मुट्ठी में बंद है एक बांसुरी,
बाँझ है दोनों

एक ख़त नहीं लिखा गया आज,
मेरे माथे पर विराग का श्वेत चंदन नहीं है,
न विलास की कुमकुम रोली है,
सांस्कृतिक सविलयन का कोई प्रक्रियात्मक प्रक्रम, स्तर
इस गऊहीन सांध्य-उपत्यका में
मेरा कोई स्वप्न, कोई प्रयत्न
कोई प्रक्रियात्मक संज्ञान
विलुब्द्ध, विश्रब्ध या मूर्च्छित नहीं है

कचनार की एक डाल है, सूख रही है
एक गीत है, कढ़ नहीं रहा
एक गंध है, उड़ नहीं रही
एक दर्शन है, शब्द नहीं पा रहा
एक सूत्र है, प्रयोग-सिद्ध नहीं होता
मेरी अंजलि में अर्घ्य है,नैवेद्य है
एक किसी विराट को अर्पित नहीं हो पाता
परती में हल नहीं उतर रहा

इस बंध्या संध्या में सब कुछ व्यवसाय सीमा में आबद्ध है
रात एक तड़प है, प्रातः एक विवशता
दिन अबिन्दुवत

कहीं शंख नहीं बजता, न घड़ियाल बजते हैं
कहीं हवन नहीं होता, न वेदमंत्रों का पाठ ही होता है
चित्र मूक हैं, वृक्ष नहीं गाते
मैं आदि पुरुष; इस तमसा के तीर पर
न जाने कितने प्रकाश वर्षों के बाद
आकर खड़ा हुआ हूं
मेरे पावों की बिवाइयों में
प्राकप्राणी युग से
अणुयुद्ध के अंत तक की यात्रा-कथा है
और मेरे रोम-रोम से यह वाणी फूटने ही को है--
"नमः सवित्रे जगदेक चक्षुषे ..."

यह फागुन की उदास सांझ है
मेरी मुट्ठी में बंद है एक बांसुरी,
बाँझ है दोनों