भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक रोगिणी बालिका के प्रति / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सीखा है तारे ने उमँगना जैसे धूप ने विकसना
हरी घास ने पैरों में लोट-लोट बिछलना-विलसना,
और तुम ने-पगली बिटिया-हँसना, हँसना, हँसना,
सीखा है मेरे भी मन ने उमसना, मेरी आँखों ने बरसना,
और मेरी भावना ने
आशीर्वाद के सुवास-सा तुम्हारे आस-पास बसना!

दिल्ली, सितम्बर, 1954