भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक ‘ढ’ ग़ज़ल / साहिल परमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ हैं
यह चौदहवें अक्षर से सब रुस्वाइयाँ हैं

कैसा बिछाया जाल तू ने अय मनु कि
हम ही नहीं पापी यहाँ परछाइयाँ हैं

हम छोड़ ना सकते ना घुल-मिल भी सके हैं
दोनों तरफ़ महसूस उन्हें कठिनाइयाँ हैं

कोई हमारी आह को सुन क्या सकेगा
बजतीं यहाँ चारों तरफ़ शहनाइयाँ हैं

मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार