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ऐन आधी रात / अमरजीत कौंके

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ऐन आधी रात
खुल जाती है आँख
पवन बिखेरता
अतीत की पुस्तक के पन्ने
और सामने की दीवार पर
कितना कुछ जगमगा उठता है

दूर गाँव में
याद आता है घर एक
जहाँ शाम को इंजन की ‘छुक-छुक’
मेरे बाल मन को
करती थी बेचैन
दादा मेरे अभी भी
आँगन में स्टूल रखकर
खाना खाने के लिये हाथ धोते
और दादी मेरी चूल्हे में
लकड़ियों से आँच तेज़ करती
उसका तांबे जैसा रंग तपता है

अन्धेरे में एक और घर दिखता है
जिसकी दीवारों से
कितने सुख-दुख साँझे
कितनी आँखें
उस घर में इन्तज़ार करतीं मेरा
कि कब लौटूँगा घर मैं
इस स्याह वक़्त के सीने पर
जलता चिराग रख कर

ऐन आधी रात
खुल जाती है आँख
पास आती मेरे
मेरी मोहब्बत की पहली नायिका
जिसने मेरे मासूम क़दमों को
ऐसी भटकन भरी राह पर डाला
कि मेरे लिए उम्र का हर रास्ता
जंगल बनता गया

याद आती
रिश्तों की नगरी
तो कितने ही ज़हर-बुझे तीर
मेरे जिस्म में सरसराने लगते

कुछ रिश्ते अभी भी पास आते
और मेरा सीना इल्ज़ाम से भरते
आधी रात में पास आती मेरे
बहुत सी मटकती हूई
जामुनी नदियाँ
गुनगुनी धूप
सुर्ख पवन
गाती हुई ख़ामोशी

याद आता
उनका आना
और चले जाना

गहरी बेचैनी में
मैं करवटें बदलता
और
सो जाने की कोशिश करता

अंधेरी रात में जलता
यह
स्मृतियों का सूरज
बुझाने की कोशिश करता ।


मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा