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ऐसी जमाई तू ने मिरे दिल पर धाक बस / जावेद क़मर

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ऐसी जमाई तू ने मिरे दिल पर धाक बस
हर-दम है तेरी याद तिरा इंहिमाक बस

वो आसमाँ का चाँद है तू है चराग़-ए-राह
तू दूर से ही देख उसे उस को ताक बस

तीर-ओ-कमाँ किसी के हमें क्या मिटाएँगे
तेग़-ए-नज़र से होते हैं हम तो हलाक बस

मिल जाएगा क़रार दिल-ए-बे-क़रार को
मुझ को दिखा दे अपना रुख़-ए-ताबनाक बस

है मुब्तला-ए-दर्द-ओ-अलम मेरी ज़िंदगी
बिन तेरे कट रही है मगर ठीक-ठाक बस

कुछ इस में लुत्फ़ है न मज़ा है न कैफ़ है
क़िस्सा ग़रीब का है बहुत दर्दनाक बस

ख़ुशबू नसीब होती है उस को न गुल 'क़मर'
सहरा-नशीं के हिस्से में आती है ख़ाक बस