भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ पखेरू / नितेश व्यास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओ पखेरू पंख खोलो
कुछ तो बोलो

नीड़ था जो नेह का
तुमने बनाया वह मिला
सूखी नदी के पार मुझको

वो जो नभ के पार जाकर ढूँढ के लाती थी दाने
उनको भर-भर चौंच में
उत्सुक थी जो तुमको खिलाने
वो सलोनी चिड़कली
वो माँ तुम्हारी अब कहाँ है?

वो जो अपने पंखों से
 पंखों को सहलाते तुम्हारे
यूँ मेरी भी थी नहीं पहचान तुम्हारे पिता से
पर जो धब्बा एक काला
 कंठ पर होता है उनके
उससे मैंने उनको जाना

क्या उन्होनें भी पीया था
 विष का प्याला?
वात के आघातरूपी गरल को धारण किया था कंठ में,
वो कृष्णकंठी ढूँढने पर भी
नहीं मिलते
बताओ वह कहाँ है?

मूक मत बैठो बताओ
कुछ तो बोलो
अब तुम्हारे ही भरोसे है ये
नन्हीं-सी गौरेया
माँ की ये लाडो
पिता की बगिया की सुन्दर डलैया
वात-वृष्टि-घात से तुमको बचाना है इसे अब
मनुज के आघात से तुमको बचाना है इसे अब

अब तुम्हें ही चोंच में भर-भर के तिनके नीड का निर्माण करना
और खिला के मुँह में दानें
नेह का आह्वान करना

ओ पखेरू पंख खोलो
अब तो बोलो
थोडा रो लो॥