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कब खुला आना जहाँ में और कब जाना खुला / राजेश रेड्डी

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कब खुला आना जहाँ में और कब जाना खुला ।
कब किसी किरदार पर आख़िर ये अफसाना खुला ।

पहले दर की चुप खुली फिर ख़ामुशी दीवारों की,
खुलते-खुलते ही हमारे घर का वीराना खुला ।

जब तलक ज़िन्दा रहे समझे कहाँ जीने को हम,
वक़्त जब खोने का आ पहुँचा है तो पाना खुला ।

जानने के सब मआनी ही बदल कर रह गए,
हमपे जिस दिन वो हमारा जाना-पहचाना खुला ।

हर किसी के आगे यूँ खुलता कहाँ है अपना दिल,
सामने दीवानों को देखा तो दीवाना खुला ।

थरथराती लौ में उसकी इक नमी-सी आ गई,
जलते-जलते शम्अ पर जब उसका परवाना खुला ।

होंटों ने चाहे तबस्सुम से निभाई दोस्ती,
शायरी में लेकिन अपनी ग़म से याराना खुला ।