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कब मुझे रास्ता दिखाती है / राजीव भरोल 'राज़'

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कब मुझे रास्ता दिखाती है
रौशनी यूं ही बरगलाती है

शाम ढलते ही लौट जाती है
वैसे इस घर में धूप आती है

अक्ल, बेअक्ल इस कदर भी नहीं
फिर भी अक्सर फरेब खाती है

जाने क्या चाहती है याद उसकी
पास आती है, लौट जाती है

रब्त हमको है इस ज़मीं से, हमें
इस ज़मीं पर ही नींद आती है

मांगता हूँ मैं खुद से खुद का हिसाब
बेखुदी आइना दिखाती है

किस से क्या बात कब कही जाए
ये समझ आते आते आती है

बात कड़वी है जाने दे, अक्सर
बात बढ़ती है, बढ़ती जाती है