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कब से बैठा सोच रहा हूँ मैं क्या भूल गया /वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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कब से बैठा सोच रहा हूँ मैं क्या भूल गया
पिछली रात जो देखा था वो सपना भूल गया

मैं जिसकी धुन में भूला हूँ ख़ुद को, वो ज़ालिम
जाने किसकी धुन में नाम भी मेरा भूल गया

तुझको यूँ ही शक़ है मैं तुझसे नाराज़ कहाँ
यार सितम तेरा मैं जाने कब का भूल गया

ये गहरी खाई, ये दलदल और कंटीले वन
धत् तेरे की, फिर मैं अपना रस्ता भूल गया

जब से दीप तले अँधियारा देखा है उसने
तब से सबके हित की बातें करना भूल गया