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कभी मिलोगी तब पूछूँगा / सरोज मिश्र

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छोड़ गई हो प्रश्न अनेकों,
कभी मिलोगी तब पूछूँगा!

एक शहर में रहकर भी हम बरसों बरस रहे अनजाने!
मिले तो ऐसा लगा युगों से हम तुम हैं जाने पहचाने!
पहचान बढ़ी फिर प्यार हुआ, फिर एक बार बिधि ने भरमाया!
सुबह मिलूंगी कहकर जाने, वाली का वह भोर न आया।
माना तुम मजबूर बहुत थे किन्तु इन्हें मैं क्या समझाऊँ,

रोज प्रत्तिक्षा कहती मुझसे
आने की तिथि कब पूछूँगा!
छोड़ गई हो प्रश्न अनेकों,
कभी मिलोगी तब पूछूँगा!

धूल भरे गर्मी के दिन वो, लेकिन तुमसे मिलने आना!
गर्द जमे चश्मे को फिर वो, देख तुम्हारा झुंझला जाना!
करके जब तुम साफ़ दुबारा, चश्मा मुझको पहनाते थे!
धुंधले दृश्य और सब अक्षर, तब पढ़ने में आ जाते थे!
मैं भी करता साफ़ रोज़ पर, साफ नहीं कुछ मुझको दिखता,

क्या जादू तुम कर देते थे,
जाकर किन से अब पूछूँगा!
छोड़ गई हो प्रश्न अनेकों,
कभी मिलोगी तब पूछूँगा!

पर्स घड़ी रुमाल चाबियाँ, हर सुबह खोजता रहता हूँ!
पासवर्ड किसका क्या होगा बस यही सोंचता रहता हूँ!
आज पहेली जैसा जीवन कल उत्तर की तरह सरल था!
एक तुम्हारा होना ही हर, कठिनाई का पहला हल था!
बेहतर कल की गुंजाइश में नए शहर जाने से पहले,

एक बार तो सोंचा होता,
किससे मैं ये सब पूछूँगा!
छोड़ गई हो प्रश्न अनेकों,
कभी मिलोगी तब पूछूँगा!