भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कर्मवाद / शिव कुमार झा 'टिल्लू'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी अपनी कविता ने एक बार
पढ़ाया मुझे पाठ
कर्मवाद का
भावों के सहारे नहीं चलती
यह बहुरंगी दुनिया
बहुआयामी जीवन में
है निहायत जरूरी
भौतिक साध्य
जीने के लिए ही नहीं
वरन जन्म से मरण तक
क्योंकि रसायन छद्म परिवर्ती
इसलिए तो कहता हूँ
बनो भाव शिल्पी मगर
डालो नज़र
सिर्फ एक बार
इस जहान पर
शांत करने हेतु
अपनी पिपासा को
चिरकालिक भुभुक्षा को...
होती है जरुरत
विविध संसाधनो की
तब शायद जाओगे भूल मुझे...
मगर ! उन सृजन के उस कंटक पथ पर
मैं आउंगीं नज़र
यह तो बस परखने की है चीज
क्योंकि मैं नहीं देती शिक्षा
पलायनवाद का
आवश्यकताओं के संयोजन से ही
होती है अनुसंधान...
इस खलक के हर अलख में
छिपी है काव्य
तलाशो संभावनाओं को
असाध्य जीवन संक्रमण
पर होगा तुम्हारा नियंत्रण
भव्य बनो कर्म का
भाव स्वतः आएगी
तुम्हारे कण -कण में
फलेगी शिल्प -साधना
दशोमुखी जीवन में