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कलिकाल की झोली में कुछ नया डाल पाए? / संजय तिवारी

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आँखे खुलीं
भींचे होंठ
बाहो का आधार
घुटनो का आभार
शब्दों का व्यापार
शिक्षा का बाज़ार
ज्ञान का औजार
तुम्ही तो लाये
पहली बार
तुम्ही रुलाये

सीता भी तो रोई थी
जब लक्ष्मण रेखा पार कर
संकल्प खोई थी
मैं न सीता हूँ
और तुम नहीं हो
राम
यह केवल एक अल्पविराम
जिसे तुमने समझा ज्ञान
जीवन का बिना किये भान
तुम्हारे समय का अभिमान
गौतम
ज्ञान नहीं इतना आसान
और सस्ता
की कोई भिक्षक
बना ले उसे अपना बस्ता
ज्ञान परम तत्व में मिल जाने का मुकाम है
ज्ञान खुद को खो देने का परिणाम है
ज्ञान विभूतियों का प्राण है
ज्ञान सृजन का सामान है
यह तब मिलता है जब
सृजनकार की होती है इच्छा
ज्ञान परम वैभव की विरासत है
न की तुम्हारी तुमड़ी में पड़ी भिक्षा
तुमसे पहले किसने पाया
मनु से इक्ष्वाकु तक
सगर से
भगीरथ तक
ध्रुव से नचिकेता तक
नारद से प्रचेता तक
याद तो करो
पार्थ को भी स्वयं
केशव ने सुनाया
तब इस जगत ने भी
गीता को गाया
तुम तो होकर परम्पराओ के
विरुद्ध
खुद को बना लिए बुद्ध
लेकिन
बताना कि विधि का लिखा
कुछ भी टाल पाए?
कलिकाल की झोली में
 कुछ नया डाल पाए?