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कल मरी बच्ची आज कैसे रोपूँ धान / मनोज कुमार झा

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हर जगह की मिट्टी जैसे कब्र की मिट्टी
पाँव के नीचे पड़ जाती जैसे उसी की गर्दन बार-बार
उखड़ ही नहीं पाता बिचड़ा, अँगुलियाँ हुईं मटर की छीमियाँ

       कुछ दिनों तक चाहिए भरी पोटली अन्न
       कुछ दिनों तक चाहिए हर रात नींद
       कुछ दिन तो हो दो बार नहान

उसको तो कह दिया कि सँभालकर रखना फोटो किसी संहतिया के बक्से में
गल गया मेरे पास का फोटो और ध्यान से चलाना रिक्शा
        माथे में घूमे उसका चेहरा तो भी आँख रखना सड़क की चाल पर
उसको कहूँ कैसे जो टहटह दुपहरिया में खोजता रहता था इमली और बेर
जब देह में थी यह असभगनी

पीपल के नीचे से हटाओ पत्थरों और पुजारियों को
        फूटी हुई शीशियों और जुआरियों को
नहीं नसीब कोई अपना कमरा
मगर पाऊँ तो बित्ता भर जगह जहाँ रोउँ तो गिरे आँसू
बस धरती पर
        किसी के पाँव पर नहीं ।