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कविता की बात / अज्ञेय

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 नहीं, मैं अपनी बात नहीं कहता।
यह नहीं कि वह मुझे कहनी नहीं है
पर वह जिसे भी कही जाएगी
अनकहे कही जाएगी

और जब तक उसे और उसे मात्र कह न पाएगी
अनकही रह जाएगी।
तुम से मैं कहता हूँ
तुम्हारी ही बात

जैसा कि तुम सुन कर ही जानोगे :
सुनते ही बार-बार पहलू-दर-पहलू, कटाव-दर-कटाव
तुम्हारे ही लाख-लाख प्रतिबिम्बों में कही जाती
लाख-लाख स्वर-धाराओं में अविराम बही आती
तुम्हारी ही बात पहचानोगे।

या फिर पाओगे
कि वह तुम्हारी से भी आगे
सब की बात है-ऐसी सब की
कि किसी की नहीं है,
कहीं की नहीं है, कभी की नहीं है

पर अपने और अपने-आप में स्वायत्त, स्वतःप्रमाण होने के नाते
ठीक यहीं की है और ठीक अब की है।
कविता तो
ऐसी ही बात होती है।
नहीं तो लयबद्ध बहुत-सी ख़ुराफ़ात होती है।

ऐसी ही बात
दिल फोड़ कर रहस्य से आती है
भीतर का जलता प्रकाश बाहर लाती है :
स्वयं फिर नहीं दीखती, और सब-कुछ दिखाती है,

उसी सब में कहीं
कवि को भी साथ ले कर
लय हो जाती है।

नयी दिल्ली, सितम्बर, 1969