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कवि नहीं अग्निशामक हूँ / शिव कुमार झा 'टिल्लू'

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कवि नहीं अग्निशामक हूँ
नवकवितावादी की दृष्टि में
मृग-मारीच साहित्य भ्रामक हूँ...
सुधि -श्रोता के समक्ष
मन के जेहन से गाता रहा
तालियों की गड़गड़ाहट में
अपने को भुलाता रहा
तब एकाएक कदम धंसा
जब कुटिल कांतिल आलोचक हंसा ..
प्रांजल कवि मन पर बज्र खसा
तीक्ष्ण शब्दवाण सुनकर
" गबैया " का उच्छ्वास फंसा
यह जहान गोल कहाँ ?
आशुत्व का मोल कहाँ !!!!
उस अग्निशामक वाहन की तरह
अपने को एकात पाया
जो पूर्वा -चित्रा नक्षत्र में
क्षितिज़विहीन परिसर में
 जंग से सड़ रहा
आर्थिक मन्दी के दौर में
किसी बीमार कम्पनी के
कार्मिक विभाग की तरह मर रहा...
मंच से उतरते ही
हुआ कवित्व बेहाल
 प्रगतिवादी बने कराल
 प्रयोगवादी छद्म आलोचना
का कर रहे तांडव...
मचा रहे भूचाल...
परम्परावादी कहकर...
भावहीनता का कलंक लगाकर
 शिल्पक्षय का भय दिखाकर
प्रगीत काव्य को जला दिया
लयविहीन मुक्तक से
स्वरबद्ध छंद को गला दिया
परम्परा का इतना विरोध क्यों ?
आशु काव्य पथ पर
डेग-डेग अवरोध क्यों...
जब परंपरा से द्वेष है
मन में क्लेश है
आनुवांशिक अभियांत्रिकी करा लो
पिता बनकर संतान जन्मा लो
क्यों देते हो माता को कष्ट
कर दो युगधर्म परंपरा भ्रष्ट...
भावशिल्प साज को
अतुकांत के आवाज को
लेख तोड़कर पद्य बनाते रहो
गद्य काव्य सुनाते रहो
होगा साहित्य अनुगामी
आपका सन्देश दूरगामी
लेकिन याद रखना
जब भाषा होगी शुसुप्त
उस समय जलाना पड़ेगा
राग लय गति का प्रदीप्त
तत्क्षण याद आऊंगा
ढूँढ़ते रह जाओगे
हमें दूर पाओगे
तीक्ष्ण बैसाख की साख
जलाकर जब कर देगी राख
उस घड़ी यही सौतेली आशुपुत्री
 लोक मंच बचाएगी
अग्निशामक वाहन की तरह
शीतल फुहार बरसाएगी
भाषा का गुण गाएगी
सब का महत्व जानो
 तुलसी रहीम पंत निराला
बच्चन -महादेवी की छाया का
दिनकर के इतिहास माया का
अंतर्मन से मूल्य पहचानो
रीति छोह की आह
अभिनंदन की चाह
भरमाओ नहीं बरसाओ
काव्य की आदि विधा
आशुत्व का प्रवाह...