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कहने को सब फ़साना-ए-ग़ैब-ओ-शुहूद था / 'रविश' सिद्दीक़ी

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कहने को सब फ़साना-ए-ग़ैब-ओ-शुहूद था
दर-पर्दा इस्तिआरा-ए-शौक़-ओ-नुमूद था

समझा न बुल-हवस किस कहते हैं इंतिज़ार
नादाँ असीर-ए-कशमकश-ए-देर-ओ-ज़ूद था

क्या आशिक़ी में हौसला-ए-मर्ग-ओ-ज़िंदगी
ख़्वाब ओ ख़याल मरहला-ए-हस्त-ओ-बूद था

सोचा था मय-कदा ही सही गोशा-ए-नजात
देखा तो इक हुजूम-ए-रूसूम-ए-ओ-क़यूद था

जाँ शाद-काम-ए-बोसा-ए-पा-ए-सनम हुई
कितना बुलंद ताला-ए-ज़ौक़-ए-सुजूद था

ये इश्क़ था कि जिस ने दिया रंग-ए-शोला-ताब
आलम तमाम नक़्श-ए-सुकूत-ओ-जुमूद था

ऐ दोस्त अब वो दौर-ए-तअम्मुल गुज़र चुका
जब दामन-ए-नज़र पे ग़ुबार-ए-हुदूद था

शब हम ग़ज़ल-सरा थे ‘रविश’ बज़्म-ए-नाज़ में
शम-ए-अदब-शनास के लब पर दुरूद था