भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहानी और चान्द / श्रीधर करुणानिधि

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहानी सुना करते थे हम
बुआ की गोद में सिर रखकर...
पूर्णिमाँ के दिन जब चान्द
माँ की रोटी की तरह गोल हो जाता
तब रात के समय भी कहते हम...
“बुआ खोजो न जू”
और खोजतीं बुआ
हमारे काले घने बालों में
ढूँढ़ते हम भी ...
दूर आसमान से झड़ती
दुधियाई रोशनी में
चकित आँखों से ...
कि तभी ...
दूध से लबालब भरे कटोरे-से चान्द में
झुर्रियों के साथ उभर आता एक चेहरा ...

सुनाती थी बुआ ... कि
हमारे गाँव के उस सबसे पुराने
आम के वृक्ष से पूछो या नहर के उस पार
बीच परपट पर उगे
उस भूतहे इमली के पेड़ से
सभी बताएँगे ...
“गाँव की बूढ़ियों को क्या
नींद आ सकती थी बिना झगड़े
दिए बिना गालियाँ !
क्या पच सकता था उनका खाना ...!
रोज़ की रोज़
थोक की थोक
शिकायत उगलतीं बहुओं की
कुँए के पाट पर बैठकर”

आसमान में बाँहें फैलाए
इस कँटीले-झबरैल जिलेबी के गाछ से भी
पूछ सकते हो
इठलाएगा वो
खुशामद करवाएगा....
तब कहेगा गम्भीर कथावाचक-सा
“हाँ, पर अपने पोतों को
कालिख की बिन्दी लगाए बिना
कहाँ जाने देती थीं बाहर...
उनकी बीमारी पर
दे आती थीं डाइनों को
सूप के सूप गालियाँ
किसिम-किसिम की धमकियाँ ...

गाँव के इस सबसे पुराने
कुएँ से पूछो तो शरमाएगा
याद करेगा अपनी शादी के दिन
अपनी जवानी के दिन
गीत गाती औरतें ...
सिन्दूर के पाँच टीके
बस, हो गई शादी !
अब पनिहारिनें भर सकती हैं
शादी के लिए जाते दूल्हे का पानी ...
सचमुच सैकड़ों शादियों के साक्षी हैं इसके चबूतरे
दुलहिनों की बाबरी धड़कनों को क़ैद किए हुए ...

टूट-टूट कर मिट्टी में मिल जाएँ, भले
कुएँ के चौरस पाट
लकड़हारा भी नहीं छोड़े आम के बूढ़े गाछ
मर-खप भी जाएँ पहले के सारे कथावाचक
पर रोटियाँ तो बनेगी तीसों दिन
नौसिखिए रसोइए की तरह
कई दिनों की मेहनत के बाद
एक दिन उगेगा उसी रोटी-सा चान्द भी
फिर चान्द की बुढ़िया चुपके से
उतर आएगी कहानियों में
जबतक शेष रहेगीं पीढ़ियाँ
शेष रहेगी कहानी और शेष रहेगा
उसमें दुबका पड़ा चान्द भी ....